तुर्क राष्ट्रपति ने सीरिया युद्ध में नाटो और यूरोपीय देशों से मांगी मदद / रिपोर्ट स्पर्श देसाई
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तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब अर्दोगान ने सीरिया युद्ध को लेकर नाटो और यूरोपीय संघ से अधिक समर्थन की मांग की है।
अर्दोगान सीरिया के इदलिब प्रांत में सीरियाई सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई में नाटो और यूरोपीय देशों का समर्थन जुटाने के लिए ब्रसेल्स पहुंचे हैं, जहां उन्होंने सोमवार को नाटो के महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग से मुलाक़ात की।
इस मुलाक़ात के बाद तुर्क राष्ट्रपति ने कहा कि वह चाहते हैं कि तुर्की के पश्चिमी साथी सीरियाई शरणार्थियों का सामना करने के लिए उनके देश का अधिक समर्थन करे।
ग़ौरतलब है कि तुर्की उत्तरी सीरिया में दमिश्क़ के ख़िलाफ़ लड़ाई में आतंकवादियों का समर्थन कर रहा है और वह सीरिया के इस भाग पर क़ब्ज़ा करना चाहता है।
इस लड़ाई में पश्चिम का समर्थन हासिल करने के लिए यूरोप पर दबाव बनाने के उद्देश्य से उसने ग्रीस से लगी अपनी सीमा शरणार्थियों के लिए खोल दी थी।
रूस के रक्षा मंत्रालय ने एक बयान जारी करके बताया है कि नाटो, सीरिया में आतंकवादियों को सशस्त्र कर रहा है।
रूसी रक्षा मंत्रालय के इस बयान के अनुसार 16 जनवरी से अबतक सीरिया के इदलिब प्रांत के विभिन्न क्षेत्रों में आतंकवादियों की कार्यवाही में कम से कम 47 सैनिक और 51 आम लोग मारे गए हैं।
रूसी बयान के अनुसार इन लोगों को जिन हथियारों से मारा गया है वे नाटो के हैं। इससे पहले सीरिया की सेना इस देश के विभिन्न क्षेत्रों से अमरीका, इस्राईल और यूरोपीय देश के हथियारों को ज़ब्त कर चुकी है। वर्तमान समय में सीरिया का इदलिब प्रांत ही आतंकवादियों के अन्तिम गढ़ के रूप में मौजूद है। इन आतंकवादियों को सशस्त्र किया जा रहा है जो चिंता का विषय है।
ज्ञात रहे कि सीरिया संकट सन 2011 में उस समय आरंभ हुआ था जब सऊदी अरब सहित अमरीका के घटकों का समर्थन प्राप्त आतंकवादी गुटों ने क्षेत्रीय संतुलन को अवैध ज़ायोनी शासन के हित में परिवर्तित करने के उद्देश्य से हिंसक कार्यवाहियां आरंभ की थीं।
सऊदी अरब ने एक साथ छेड़ दीं दो लड़ाइयां, देश के भीतर बाग़ियों और विश्व स्तर पर रूस को बनाया निशाना, तेल की क़ीमतें गिरने से कैसे ध्वस्त हुए अरब देशों के शेयर बाज़ार?
सऊदी अरब इन दिनों सुर्खियों में है क्योंकि वह दो बड़े युद्ध एक साथ लड़ रहा है। पहला युद्ध आंतरिक है जिसमें क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान छोटे बड़े राजकुमारों सहित अनेक लोगों की धरपकड़ करके सत्ता पर अपनी गिरफ़्त मज़बूत करना चाहते हैं और सारे विरोधियों को किनारे लगा देने की कोशिश में हैं और दूसरा युद्ध विश्व स्तर का है।इस युद्ध के तहत सऊदी अरब ने अपने तेल की क़ीमत में एकपक्षीय रूप से 10 डालर प्रति बैरल की कमी कर दी है। इसका मक़सद रुस को मजबूर करना है कि वह रोज़ाना डेढ़ मिलियन बैरल तेल का उत्पादन कम करने के ओपेक के फ़ैसले पर अमल करे ताकि तेल की क़ीमतों में कुछ बेहतरी आए क्योंकि कोरोना के चलते सबसे बड़े तेल उपभोक्ता चीन सहित अनेक देशों में तेल का इस्तेमाल कम हुआ है और तेल की क़ीमतें गिर गई हैं।
रूस से इंतेक़ाम के लिए सऊदी अरब ने अपने फ़ैसले का एलान किया तो एक दिन के भीतर तेल की क़ीमतों में तीस प्रतिशत की गिरावट आ गई हैं और प्रति बैरल तेल की क़ीमत 30 डालर तक पहुंच गई हैं । कुवैती तेल विशेषज्ञ अब्दुस्समद अलऔज़ी का कहना है कि यदि यह लड़ाई जारी रही तो कुछ ही दिनों में यह क़ीमत 25 डालर प्रति बैरल तक भी गिर सकती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस लड़ाई में अभी सुलह के लक्षण नज़र नहीं आ रहे हैं क्योंकि रूस ने अमरीका के शेल आयल के खिलाफ़ लड़ाई शुरू कर रखी है। रूसी अधिकारियों का यह मानना है कि यदि तेल की क़ीमत कम रहेगी तो अमरीका में शेल आयल पैदा करने वाली कंपनियां दीवालिया हो जाएंगी क्योंकि इस तेल का उत्पादन महंगा पड़ता है।
रूस के ख़िलाफ़ सऊदी अरब की यह दूसरी लड़ाई है। इससे पहले वर्ष 2014 में अमरीका के इशारे पर सऊदी अरब ने अचानक तेल का उत्पादन बढ़ा दिया था ताकि रूस और ईरान की अर्थ व्यवस्थाओं को नुक़सान पहुंचाए। उस समय तेल की क़ीमत 120 डालर प्रति बैरल से गिरते गिरते 30 डालर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी और तेल पैदा करने वाले अरब देशों को भारी नुक़सान उठाना पड़ा था। इससे ईरान और रूस को भी नुक़सान तो पहुंचा लेकिन उनकी अर्थ व्यवस्थाएं ध्वस्त नहीं हुईं बल्कि इन दोनों देशों की ताक़त और भी बढ़ी हैं ।
सऊदी अरब में नीति निर्धारक यह समझ रहे हैं कि यह स्थिति जारी रही तो रूस की चीख़ निकल पड़ेगी क्योंकि रूसी तेल के उत्पादन पर भी ज़्यादा ख़र्च आता है जबकि सऊदी अरब में तेल के उत्पादन पर आने वाला ख़र्च 3 डालर प्रति बैरल है मगर सऊदी अधिकारी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि रूस की अर्थ व्यवस्था बहुआयामी है, तेल की आमदनी पर उसकी निर्भरता बहुत कम है जबकि सऊदी अरब की अर्थ व्यवस्था का लगभग 90 प्रतिशत भाग तेल की आमदनी पर निर्भर है।
तेल की क़ीमतों में आने वाली गिरावट से फ़ार्स खाड़ी के इलाक़े के अरब देशों को सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा हैं । इन देशों के शेयर बाज़ार औंधे मुंह गिरे हैं । कुवैत ने तो अपने शेयर बाज़ार में ख़रीद फ़रोख़्त ही रोक दी हैं । क़तर के शेयर बाज़ार के इतिहास में एक दिन के भीतर होने वाली सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई हैं ।
अगर अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों का यह अनुमान सही है कि विश्व स्तर पर तेल के उपभोग में लगभग साढ़े सात लाख बैरल की कमी आएगी तो इससे फ़ार्स खाड़ी के देशों की समस्या बढ़ना तय है जो पहले ही बजट घाटे की समस्या से जूझ रहे हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि सऊदी अरब ने एकपक्षीय रूप से जो फ़ैसला किया है उसका अंजाम उसके साल 2014 के फ़ैसले से अलग नहीं होगा। क्योंकि विश्व भर में तेल का प्रयोग घटा है। एविएशन विभाग को विश्व भर में 120 अरब डालर का नुक़सान पहुंच चुका है क्योंकि कोरोना के कारण सफ़र कम हो गए है। नतीजे में कई एयर लाइनें दीवालिया हो गई हैं।
सऊदी इकानामी के लिए रीढ़ की हड्डी समझी जाने वाली आरामको कंपनी को अब तक अपनी कुल क़ीमत में 248 अरब डालर का नुक़सान हो चुका है और उसके शेयरों की क़ीमत लगभग दस प्रतिशत तक गिर गई है।
आईएमएफ़ ने पिछले हफ़्ते अपनी रिपोर्ट में कहा था कि फ़ार्स खाड़ी के इलाक़े के अरब देश वर्ष 2034 तक दीवालियापन की कगार पर पहुंच जाएंगे क्योंकि बिजली, सौरऊर्जा और परमाणु ऊर्जा को ईंधन के तौर पर प्रयोग करने वाली गाड़ियों का उत्पादन बढ़ रहा है।
इस समय कोरोना वायरस और सऊदी अरब के फ़ैसले के चलते जो स्थिति पैदा हो गई है वह शायद इन देशों के दिवालियापन का समय और भी नज़दीक ला देगा ।
【समाचार शोर्स -अब्दुल बारी अतवान के एक लेख के उपर से - साभार
अरब जगत के मशहूर टीकाकार और लेखक】
रिपोर्ट स्पर्श देसाई √●Metro City Post # MCP●News Channel ◆ के लिए...
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